Friday, March 15, 2019

अगर सपा की इस दुखती रग पर रखा कांग्रेस ने हाथ तो अमेठी-रायबरेली में उतरेंगे कैंडिडेट

कांग्रेस महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गांधी का दलित नेता व भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर से मुलाकात करना कई लोगों की नजर में प्रियंका का यह कदम बसपा की दुखती रग पर हाथ रखने जैसा था. इस मुलाकात के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस के खिलाफ उम्मीदवार उतारने का मन बना लिया था, लेकिन बाद में गठबंधन ने इस फैसले को फिलहाल के लिए टाल दिया है. हालांकि, सपा-बसपा ने तय कर लिया है कि अगर अब कांग्रेस ने दूसरी दुखती रग 'शिवपाल यादव' पर कांग्रेस ने हाथ रखा तो अमेठी-रायबरेली दोनों सीटों पर गठबंधन चुनाव लड़ने का कदम उठा सकता है.

बता दें कि प्रियंका गांधी वाड्रा के दलित नेता चंद्रशेखर आजाद से बुधवार को मिलने के फौरन बाद मायावती और अखिलेश यादव की अचानक हुई बैठक ने कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी बजा दी थी. नाराज मायावती अमेठी और रायबरेली में अपने उम्मीदवार उतारकर इसका बदला लेना चाहती थी, लेकिन फिलहाल गठबंधन अभी पुराने फॉर्मूले पर ही चुनाव लड़ेगा.

अखिलेश और मायावती के बीच हुई मीटिंग में यह बात भी तय हुई कि फिलहाल कांग्रेस को 2 सीटों के साथ गठबंधन का हिस्सा ही कहा जाए. लेकिन सपा-बसपा गठबंधन ने कांग्रेस के अगले कदमों को लेकर सतर्क है और उसने वेट एंड वॉच की रणनीति अपना रखी है. सपा सूत्रों ने बताया कि अगर कांग्रेस पार्टी ने शिवपाल यादव से किसी भी तरह का गठबंधन करने का फैसला करती है तो अमेठी और रायबरेली की संसदीय सीटों पर राहुल गांधी-सोनिया गांधी के खिलाफ उम्मीदवार उतारने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचेगा.

इसका मतलब साफ है कि प्रियंका गांधी ने चंद्रशेखर से मिलकर बसपा के दुखती रग पर हाथ रखा दिया था. ऐसे में कांग्रेस ने शिवपाल यादव के साथ गठबंधन किया तो अमेठी और रायबरेली में भी कांग्रेस को गठबंधन के उम्मीदवार झेलने होंगे. दरअसल, अमेठी और रायबरेली कांग्रेस का सबसे मजबूत गढ़ रहा है. इस बार के चुनाव में अमेठी में बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है.

ऐसे में सपा-बसपा को मालूम है वहां कांग्रेस पार्टी रिस्क लेने की जहमत नहीं उठा सकती है. पार्टी के नेताओं के मुताबिक यह कोई ब्लैकमेल नहीं बल्कि रणनीति का हिस्सा है और पार्टी ने फिलहाल कांग्रेस को ज्यादा तवज्जो नही देने की रणनीति बना रखी है.

प्रोफेसर महापात्रा का कहना है कि न्यूजीलैंड में बड़ी संख्या में भारतीय और एशियाई आबादी रहती है. इसके साथ ही ब्रिटिश मूल के लोग भी वहां काफी संख्या में हैं. ध्यान देने वाली बात यह है कि हमलावर ने मस्जिद में घटना को अंजाम दिया है. अगर वो अन्य एशियाई देशों के अप्रवासियों के खिलाफ होता तो किसी मार्केट या अन्य सार्वजनिक जगह पर जाकर गोलियां चला सकता था. लेकिन उसने खासतौर पर एक धर्म विशेष के लोगों को ही निशाना बनाया है लिहाजा माना जा सकता है कि वो इस्लामी चरमपंथ के खिलाफ हो.

न्यूजीलैंड के हमलावर ने अपने मैनीफेस्टो में लिखा है कि यूरोपीय लोगों की संख्या हर रोज कम होने के साथ वे बूढ़े और कमजोर हो रहे हैं. उसका कहना है कि हमारी फर्टिलिटी रेट कम है, लेकिन बाहर से आए अप्रवासियों की फर्टिलिटी रेट ज्यादा है लिहाजा एक दिन ये लोग श्वेत लोगों से उनकी भूमि छीन लेंगे. ठीक इसी तरह ही व्हाइट सुप्रीमैसिस्ट संगठन भी दावा करते हैं कि वे अप्रवासियों और जातीय अल्पसंख्यकों द्वारा खड़ी की गई आर्थिक और सांस्कृतिक खतरों से अपनी आजीविका को संरक्षित करके औसत मेहनती यूरोपीय लोगों की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं.

प्रो. चितामणी महापात्रा का कहना है कि आम तौर पर देखा गया है कि जब इन देशों की आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है तो इस तरह की घटनाएं नहीं होती. लेकिन ब्रेक्जिट के बाद यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता आने के साथ ही वैश्विक स्तर पर मंदी का दौर चल रहा है. इसलिए इस तरह के हमले का कारण सांस्कृतिक और आर्थिक अनिश्चितता हो सकता है.

यूरोप में कई घोर दक्षिणपंथी दलों ने अप्रवासी विरोधी और विशेष रूप से मुस्लिम-विरोधी जेनोफोबिया (विदेशी लोगों को नापसंद करना) को अपनी पार्टी के प्लेटफार्म पर नैतिक-राष्ट्रवाद की अवधारणा के माध्यम से प्रभावित किया है. इनका विचार है कि एक राष्ट्र को एक जातीयता से बनाया जाना चाहिए. ये दल बहुसंस्कृतिवाद को मूल राष्ट्रीय पहचान के विनाश के लिए एक कोड़ के रूप में देखते हैं.

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