अभी पखवाड़े भर पहले छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में एक 'राज दरबार' सजा था. दरबार में हज़ारों की संख्या में एक-एक कर लोग आ रहे थे और भेंट देकर जा रहे थे.
इस राज सिंहासन पर बैठे थे छत्तीसगढ़ विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव.
असल में सिंहदेव उस राज परिवार के मुखिया हैं जिसका साम्राज्य सरगुजा के इलाके में फैला हुआ था.
देश आज़ाद हुआ, रियासतों और ज़मींदारियों का भारत में विलय हुआ और राजा-रजवाड़ों के दिन ख़त्म हो गए. बची रह गईं पुरानी परंपराएं, जिनमें से कुछ अब तक कायम हैं. जिसे साल दो साल में कभी-कभार निभाया जाता है.
सिंहदेव कहते हैं, "प्राचीन परंपरा रही है जिसमें आम जनता से मिलना-जुलना होता है. इसमें पुराने दिनों जैसी कोई बात नहीं है."
टीएस सिंहदेव पिछले दस सालों से विधायक हैं और अब तीसरी बार विधानसभा चुनाव के लिए मैदान में हैं. छत्तीसगढ़ में पार्टी के अध्यक्ष भूपेश बघेल के अलावा जिन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा है, उनमें टीएस सिंहदेव भी शामिल हैं.
यह कहना ठीक होगा कि राज सिंहासन भले चला गया हो, लेकिन सत्ता को बरकरार रखने की कोशिश अब भी जारी है. सिंहदेव अब किसी भी दूसरे प्रत्याशी की तरह अंबिकापुर की गलियों में लोगों से मिल रहे हैं, उनसे राज्य में कांग्रेस की सरकार बनाने की अपील कर रहे हैं.
रियासत की सियासत
आज़ादी के बाद भारत में राजा-महाराजा और ज़मींदारों के दिन भले लद गए हों, लेकिन छत्तीसगढ़ में अब भी सियासत की राजनीति इन रियासतों के आसपास ही घूमती है.
सरगुजा से लेकर बस्तर तक राजा-महाराजा आज भी राजनीति के केंद्र में बने हुए हैं.
आज़ाद भारत की चुनावी तस्वीर देखें तो पता चलता है कि छत्तीसगढ़ के कुछ एक राजाओं को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश राजा-महाराजाओं ने कांग्रेस पार्टी का ही हाथ थामा.
मध्यप्रांत की विधानसभा में पहली बार जो लोग चुन कर पहुंचे थे, उनमें बड़ी संख्या राजाओं की थी. बाद के दिनों में जनतंत्र की तरह ही लोकतंत्र में भी रियासतों का परिवारवाद विस्तार पाता चला गया.
राजनीतिक मामलों के जानकार डॉक्टर विक्रम सिंघल कहते हैं, "महज़ राज परिवार का होने के कारण राजनीति में भी किसी को खास महत्व मिला हो, ऐसा नहीं है. छत्तीसगढ़ में अधिकांश रियासत के शासकों ने अपनी मेहनत के बल-बूते राजनीति में जगह बनाई. हां, जनता में उसका प्रभाव तो था ही."
असल में छत्तीसगढ़ में आज़ादी के समय 14 रियासतें थीं और इसी तर्ज़ पर कई ज़मींदारियां. सिंहासन जाने के फ़ौरन बाद अधिकांश रियासतों के उत्तराधिकारियों ने अपना रुख राजनीति की ओर किया और वे इस क्षेत्र में भी सफल हुए.
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